यदि बुढ़ापे का भय मिट जाए और यह समझ में आ जाए कि बुढ़ापे का भी अपना आनन्द है तो बुढ़ापा कष्टदायी नहीं होता। आदमी सोचता है बूढ़ा हो जाऊंगा तब कोई नहीं पूछेगा। कोई पास नहीं आएगा। अकेला रह जाऊंगा। वह इसी चिंता में डूब जाता है। पर अब दृष्टि बदल जाए कि बुढ़ापे का भी अपना आनन्द होता है, एकांत में रहने का अपना आनन्द होता तो वह व्यक्ति सर्वत्र आनन्द ही आनन्द पायेगा। जो आदमी सदा लोगों के बीच रहा है, जिसने कभी एकांत का अनुभव नहीं किया, वह नहीं समझ सकता कि एकांत का क्या आनन्द है? जो व्यक्ति जिनके लिए जी रहा है, वे यदि साथ नहीं आते हैं तो उसे बड़ा कष्ट होता है किंतु जिसने अकेले होकर अनुभव कर लिया या स्वयं को सत्य के लिए समर्पित कर दिया उसका कितना आनन्द होता है, वही जान सकता है, दूसरा आदमी नहीं जान सकता।
रोग, बुढ़ापा और मौत का निमंत्रण
हमने देखा है कि ऐसे भी व्यक्ति हैं जिनके शरीर में भयंकर रोग हैं पर उन्हें कोई कष्ट का अनुभव नहीं है। हमने देखा है कि कुछ व्यक्ति अत्यंत बूढ़े हैं, पर वे अनुभव ही नहीं करते कि उन्हें बुढ़ापे का कष्ट है। हमने देखा है कि ऐसे भी मनुष्य हैं जो मौत को निमंत्रित करते हैं और खुशी-खुशी उसका वरण करने के लिए उत्सुक हैं। हम यह सोचें कि रोग को कौन निमंत्रित करता है? मौत का कौन निमंत्रित करता है? आज मौत उतनी जल्दी आती है, उतनी जल्दी नहीं आनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को सामान्यत: सौ वर्ष तक जीने का अधिकार है।
प्रत्येक व्यक्ति को रोग से बचने का अधिकार है। पर आदमी संयम नहीं करता, वह रोग को निमंत्रित करता है। बुढ़ापा क्यों आता है? बुढ़ापे के कारण क्या हैं? चालीस वर्ष के बाद फेफड़ों की शक्ति क्षीण हो जाती है। जितनी प्राणवायु लेनी चाहिए उतनी प्राणवायु लेने की उनमें शक्ति नहीं होती। जो व्यक्ति श्वास लेना नहीं जानता क्या वह बुढ़ापे को आमंत्रण नहीं दे रहा है? मानसिक तनाव के कारण बुढ़ापा जल्दी आता है।
युवा-वृद्ध और वृद्ध-युवा कौन?
एक प्रश्न है। बुढ़ापे की पहचान क्या है? बुढ़ापे का संबंध अवस्था से नहीं है। आयु विशेषज्ञ वैज्ञानिकों ने यह सूत्र दिया कि बुढ़ापे के साथ वर्षों का संबंध नहीं है। जब स्मृति-शक्ति, निर्णय-शक्ति और आत्म नियंत्रण की शक्ति क्षीण हो जाती है तब आदमी बूढ़ा हो जाता है। एक व्यक्ति चालीस वर्ष का है। यदि उसकी स्मृति-शक्ति, निर्णय-शक्ति और आत्म नियंत्रण की शक्ति क्षीण हो गयी है, वह युवा होते हुए भी बूढ़ा है। एक व्यक्ति अस्सी वर्ष का है। उसकी स्मृति शक्ति तेज है। उसकी निर्णय शक्ति भी अच्छी है और वह आत्म नियंत्रण करने में भी सक्षम है तो वह बूढ़ा होते हुए भी युवा है। वह वृद्ध युवा है।
मौत को निमंत्रण वही देता है जो बुढ़ापे को निमंत्रण देता है। मौत और बुढ़ापा दो नहीं है। एक ही घटना के दो नाम है। एक है पूर्व नाम और एक है उत्तर नाम। दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। जैसे बूढ़ा बना और मौत के मुंह में चला गया। जो भी आदमी मरता है, चाहे वह बीस वर्ष का हो, या पचास वर्ष का, वह बूढ़ा होकर ही मरता है। बूढ़ा हुए बिना कोई नहीं मरता। चाहे कोई दस वर्ष का होकर मरता है तो भी वह बूढ़ा होकर ही मरता है। बूढ़ा वह है जिसकी प्राणशक्ति क्षीण हो गयी। अपने मन की उच्छृंखलताओं के कारण जिसने प्राणशक्ति का व्यय अधिक कर दिया, वह मर जायेगा। मरने का अर्थ है- शक्ति का अपव्यय, शक्ति का खर्च हो जाना, फिर चाहे वह किसी भी कारण हो।
बुढ़ापा होगा, पर बुढ़ापे का कष्ट नहीं होगा
जब दृष्टि बदलती है तब नई सृष्टि का निर्माण होता है। उस नई सृष्टि में तीन बातें बदल जाती हैं। रोग जब उतना नहीं होगा जितना इस दुनिया में होता है, बुढ़ापा इतना जल्दी नहीं आएगा जितना जल्दी इस दुनिया में आता है। मौत इतनी जल्दी नहीं आएगी जितनी जल्दी इस दुनिया में आती है। रोग होगा, पर रोग का कष्ट नहीं होगा। बुढ़ापा होगा, पर बुढ़ापे का कष्ट नहीं होगा। मौत होगी, पर मौत का कष्ट नहीं होगा।
जब दृष्टि बदलती है तो सृष्टि सचमुच बदल जाती है। मौत अपना मूल्य खो देती है। मौत का मूल्य तब होता है जब लोग डरें। सत्ता का मूल्य तब होता है जब सत्ता से लोग भय खायें। यदि सत्ता से लोग नहीं डरते हैं तो सत्ता अपना मूल्य खो देती है। दण्ड का या पुलिस का मूल्य ही क्या? प्रयोजन ही क्या? आज सत्ता का भय इसलिए है कि वह फांसी दे सकती है। यदि मौत का भय न हो तो बेचारी सत्ता निकम्मी हो जाती है।
बुढ़ापा: शक्ति संरक्षण का साधन
हमारी नई सृष्टि में बुढ़ापा हो सकता है, पर बुढ़ापे का कष्ट नहीं हो सकता। उसको शक्ति संरक्षण का साधन बनाया जा सकता है। बुढ़ापा शक्ति संरक्षण का अच्छा साधन है। जितना जीवन जीया, उसमें शक्तियों का अंधाधुंध खर्च किया, अपव्यय किया। पर जब जो शक्तियां हैं उनका उचित उपयोग किया जाए। नई शक्तियों की प्राप्ति और प्राप्त शक्तियों का संरक्षण और उपयोग किया जा सकता है।
ऐसी स्थिति में जीवन में आनन्द उत्पन्न हो जाता है। नई सृष्टि के लिए नई सृष्टि के प्रति समर्पित होना चाहिए। जब तक हम समर्पित नहीं होते तब तक वास्तविक उपलब्धि नहीं होती। बड़ी उपलब्धि के लिए बड़े के प्रति समर्पित होना जरूरी है। छोटे के प्रति समर्पण से कार्य नहीं होता। बड़े के प्रति समर्पण होता है तो बड़ी उपलब्धि होती है। जितना बड़ा समर्पण होगा उतनी ही बड़ी उपलब्धि भी होगी।