रंग और उल्लास का पर्व होली

रंग और उल्लास का पर्व होली

होली-मंगलोत्सव भारत वर्ष में मनाया जाने वाला एक प्रसिध्द लोकपर्व है। रस, रंग, माधुर्य से सराबोर यह पर्व आंतरिक उल्लास को उभारने वाला एक सांस्कृतिक पर्व है। यह पर्व कृषि कुसुमित संस्कृति के एक प्रतीक के रूप में भी प्राचीन समय से प्रचलित है। इसकी यह सार्वभौम विशेषता ही है, जिसके कारण देश के हर वर्ग, जाति, धर्म और संप्रदाय के लोग इसे बड़े उत्साह एवं आनंद के साथ मनाते हैं। रंगोह का यह पर्व प्रकृति से मानव को एकाएक कर तादात्म्य स्थापित कर देता है एवं जीवन को उल्लास के साथ जीने की रीति-नीति का भी शिक्षण देता है। बसंत से ही आरंभ हो जाने वाले इस पर्व में जहां एक ओर बासंती रंगी प्रकृति सुंदर छटा बिखेरती है, वहीं दूसरी ओर गुलाल-अबीर से रंगा मानव समुदाय अपनी आंतरिक पुलकन को भी प्रगट करता है होलिका पर्व निष्क्रिय जड़ता पर जीवंत एवं सजीव चैतन्यता की स्थापना का पर्व है।

वस्तुत: होली बहुत प्राचीन उत्सव है। इसको आरंभिक काल में ‘होलाका’ कहा जाता था। भारत के पूर्वी भागों में अभी भी यह शब्द प्रचलित है। जैमिनी एवं शबर ने भी इस कथन की पुष्टि की है। ‘होलाका’ उन 20 क्रीड़ाओं में से एक है, जो संपूर्ण भारत में कभी प्रचलित थीं। इसके अनुसार, फाल्गुन पूर्णिमा पर लोग श्रंग से एक-दूसरे पर रंगीन जल छोड़ते हैं और सुगंधित चूर्ण बिखेरते हैं। लिंग पुराण इस पर्व को फाल्गुनिका कहकर संबोधित करता है एवं इसे विभूति व ऐश्वर्य प्रदायक पर्व मानता है।

अनेक विशेषताओं से युक्त वर्ष का यह अंतिम पर्व जीवन में संस्कृति के पूर्ण समन्वय का द्योतक है। वैदिक यज्ञ और लोकोत्सव का एक अद्भुत समन्वय इसमें मिलता है। होली के पर्व पर अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचकर वर्ष की रागिनी नये वर्ष की नयी रागिनी को जन्म देती है।

होली का नैसर्गिक संबंध ऋतु परिवर्तन से है। शिशिर और हेमंत कालीन शीत की ठिठुरन के बाद बसंत का आगमन उल्लास लेकर आता है। फाल्गुन मास व बसंत दोनों मिलकर प्रकृति में अपूर्व आनंद व उमंग का रंग घोलते हैं। कोयल की कूक, खिलते पुष्पों की सुंगध व आम्र मंजरियों की मादकता से भरा बहता पवन तन-मन में उत्साह एवं जीवन के प्रति एक नयी दृष्टि का विकास करता है। प्रकृति के इन रूपों को देखकर मानव मन हर्षित हो उठता है एवं कभी कवि, कभी साहित्यकार, कभी कलाकारों के माध्यम से भावनाएं अभिव्यक्त होने लगती हैं। रत्नवली में कवि का वर्णन है कि होली पर्व के शुभावसर पर उड़ते हुए केशर मिश्रित गुलालों से उषाकाल का भ्रम हो रहा है

होली और भगवान श्रीकृष्ण का संबंध अटूट है। इसे साहित्य के प्रत्येक ग्रंथ में वर्णित देखा जा सकता है। गर्ग संहिता, फागुकाव्य, बसंतविलास, पृथ्वीराज रासो (चंदवरदाई कृत), सूरदास एवं परमानंद के काव्योंस में मीरा-रसखान के ोदोहों में सभी जगह होली एवं कृष्ण का सरस, सजीव एवं सुंदर चित्रांकन मिलता है। फाग विलास और फाग विहार रीतिकालीन नागरीदास कवि की दो रचनाएं होली पर प्रसिध्द हैं। बिहारी, घनानंद, पद्माकर, केशव, सेनापति आदि सभी रीतिकालीन कवियों ने अपनी लेखनी से होली का रंग भरा है। भवभूति के मालती माधव नाटक में तो इसी पर्व का बड़ा सुंदर चित्रण है। 1857 की होली का चित्रण करते हुए बहादुरशाह जफर ने लिखा था-

हिंद में कैसे फाग मची जोरा-जोरी
फूल तख्त हिन्द बना केशर की सी क्यारी।
कैसे फूटे भाग हमारे लुट गयी दुनिया सारी
गोला में गुलाल बनायो तोप की पिचकारी॥

कितनी विडम्बना है कि जो वंदना जफर ने अभिव्यक्त की, आज भारत की आजादी के इतने वर्षों बाद भी वही कहानी दोहराई जा रही है। भारत वर्ष जातिवाद, क्षेत्रवाद, संकीर्णता, सांप्रदायिकता से घिरा हुआ है। आतंक के साये में आज अपने ही भाइयों के खून से होली खेली जा रही है। कहीं बम के धमाके हैं तो कहीं राजनैतिक दांव पेचों पर जनसाधारण को नचाया जा रहा है। युवा शक्ति नशे में डूबी दिखाई पड़ती है तो संस्कृति के नाम पर अश्लीलता का नंगा नाच देखने को मिलता है।

विश्वविद्यालयों, कालोनियों, परिसरों के प्रांगण अराजकता से भर गये हैं। रंग तो गहराया है पर है वह स्वार्थपरता, भ्रष्टाचार तथा अवसरवाद का। ऐसी स्थिति में होली हमें पुन: याद दिलाने आयी है समरसता से भरे, उमंगों से भरे एक ऐसे अवसर की, जब हम छोटे-बड़े का भेद मन से निकालकर स्वयं के मन का मैल निकाल फेकें। होली का त्योहार सामूहिकता के भाव की वृध्दि करने वाला है तथा संगठन और एकता को सुदृढ़ बनाने आता है। यदि यही उद्देश्य रखकर समता के इस पर्व को मनाया जाए तो आपस की असमारूपी असुरता को होली में जलाकर नष्ट किया जा सकता है।

होली के अनेक उद्देश्य व शिक्षाएं हैं, किन्तु यहां इसके इतिहास के साथ-साथ एक पक्ष को ही स्पर्श किया गया है। एक सबसे बड़ी महत्वपूर्ण शिक्षा इस पर्व की यह है कि मनुष्य को दीन-दुर्बल और डरपोक होकर नहीं रहना चाहिए। सर्वदा इस संसार में नृसिंह की तरह निर्भय और वीर का जीवन जीना चाहिए। हमें श्रेष्ठता को, आदर्शों को अपनाना चाहिये और बुराई से लड़ने का साहस अपने अंदर जगाना चाहिये, तभी इस पर्व को मनाने की सार्थकता है।