पवित्र मन, वचन व कर्म से तर्पण यानि श्राध्द

पवित्र मन, वचन व कर्म से तर्पण यानि श्राध्द

हिन्दू संस्कृति में श्राध्द करना सर्वश्रेष्ठ पुण्य का कार्य माना गया है। श्राध्द करने से पितर वर्ष भर संतृप्त रहते हैं। हमारी संस्कृति में श्राध्द न करना बुरा माना गया है। ऐसे व्यक्तियों के लिये ‘पृथ्वी चंद्रोदय’ में मनु का कथन है।

भारतीय संस्कृति में जन-जन का यह अटूट विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात जीवन समाप्त नहीं होता, बल्कि जीवन को निरंतर माना गया है, जिसमें मृत्यु भी एक कड़ी है। प्राय: मृत व्यक्ति के संबंध में यह कामना की जाती है कि अगले जन्म में वह सुसंस्कारवान तथा ज्ञानवान बने। इस निमित्त जो कर्मकांड संपन्न किये जाते हैं उसका लाभ जीवाल्मा को श्रध्दा से किये गये क्रियाकर्मों के माध्यम से मिलता है, अत: मरणोत्तर संस्कार, श्राध्द कर्म भी कहलाते हैं।

श्राध्द के माध्यम से, पवित्र मन, वचन व कर्म से तर्पण किया जाता है, ताकि आत्माएं प्रसन्न रहें व उन्हें शांति मिले। श्राध्दों का आयोजन सूर्य के कन्या राशि पर आने के समय में ही किया जाए, जो सर्वाधिक उपयोगी है। श्राध्द भाद्रपद की पूर्णिमा से शुरू होकर अश्विनी के कृष्ण पक्ष में अमावस्या तक कुल 16 दिन की अवधि पितृ पक्ष कहलाती है। इसी अवधि में पित्तरों के प्रति श्रध्दा के प्रतीक श्राध्दों का आयोजन घर-घर में होता है।

श्राध्द को लेकर एक पौराणिक घटना महाभारत काल से भी जुड़ी मानी गयी है, जिसमें कहा गया है कि कर्ण प्रतिदिन स्वर्ण दान किया करते थे। उन्हें मरणोपरांत स्वर्ण में रहने हेतु स्वर्ण महल मिला, जहां प्रत्येक वस्तु सोने की थी। कर्ण इससे परेशान हो उठे। जब इसका कारण यमराज से पूछा तो पता चला कि वह प्रतिदिन सवा मन सोना दान करते थे, अन्य वस्तुओं का नहीं। यह जानकर कर्ण को बड़ा संताप हुआ। वे ईश्वर से विनती कर पंद्रह दिन के लिये पृथ्वीलोक में पुन: आये व सभी वस्तुओं का दान किया तथा मनुष्यों को भोजन करवाया। कहा जाता है कि इस कथा की स्मृति में ही पितरों के प्रति श्राध्द मनाये जाने लगे।

श्राध्द के साथ मुख्य रूप से जुड़ी व्यक्ति की श्रध्दा है। इसलिए परिवार के व्यक्तियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे, काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से दूर रहकर यह पुनीत कार्य करेंगे। श्राध्द कर्म में खर्च किये जाने वाला धन भी ईमानदारी से कमाई किया हुआ ही होना चाहिये। अपनी पितरों को पवित्र मन से तर्पण करने हेतु वर्ष में दो दिन शुभ माने गये हैं। प्रथम मृत्यु तिथि पर व दूसरे श्राध्द के अवसरों पर उसी तिथि पर जिस दिन वे देवलोक को गये हैं। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है कि श्राध्द के दिनों में अपने सभी भूले-बिसरों के लिये अमावस्या का दिन सर्वाधिक अनुकूल है। चूंकि इस दिन पितृ हमारे काफी नजदीक होते हैं। यदि किसी बाधावश श्राध्द के दिनों में श्राध्द न किया जा सके तो एकादशी के रोज भी पितरों का श्राध्द किया जा सकता है, जिसका पुण्य उन्हें प्राप्त होता है।

श्राध्द न केवल पितरों का ही अपितु शिष्य, मित्र, गुरु या परिचित का भी किया जा सकता है। विधि-विधान द्वारा परिवार में तीन पीढ़ियों तक का श्राध्द किया जा सकता है। श्राध्द करने का हक पुत्र या निकट के पुरुषजन को ही होता है। पुरुषों की अनुपस्थिति में ही स्त्रियां श्राध्द कर सकती हैं। श्राध्द करते समय यह जरूरी है कि अपने पितरों का नाम लेकर ही तिलांजलि दी जाए साथ ही पवित्र जल हाथ में लेकर, जौ, चावल तथा चंदन डालकर आह्वान करें। पितृ आह्वान हेतु कलश स्थापित कर तिल की ढेरी लगाकर उस पर दीपक जलायें व आसपास पुष्प रखें। दीपक आटे के ही बनायें व उनमें शुध्द घी काम में लें। सभी परिजन हाथ में अक्षत लेकर आह्वान करें व दीपक की लौ के सामने देखें व बीच में (विश्वेदेवाय मंत्र बोलें, फिर अक्षत छोड़ दें) पितृभ्यो नम: आवाह यामि, स्थापायामि का उच्चारण करें। इन मंत्रों के उच्चारण से पित्तर खुश होते हैं व उन्हें शांति मिलती है।

भारतीय दर्शन में मतानुसार मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का स्थूल शरीर तो यहीं रह जाता है व उसका सूक्ष्म शरीर (आत्मा) अपने कर्मों के अनुसार फल भोगने हेतु परलोक सिधार जाती है। श्राध्द करते समय पितरों के प्रति मौन रखना, उनकी स्मृति में जनमानस की सेवा हेतु कुछ भी पुनीत कार्य व निर्माण भी करवाया जा सकता है। इस दिन गरीबों को व पशुओं को भी भोजन कराया जाए तो उचित है ही पितरों के नाम से दान भी किया जा सकता है।

हिन्दू संस्कृति में श्राध्द करना सर्वश्रेष्ठ पुण्य का कार्य माना गया है। श्राध्द करने से पितर वर्ष भर संतृप्त रहते हैं। हमारी संस्कृति में श्राध्द न करना बुरा माना गया है। ऐसे व्यक्तियों के लिये ‘पृथ्वी चंद्रोदय’ में मनु का कथन है।

न तंत्र वीरा जायन्ते
निरोगो न शतायुष:।
न च श्रेयोधि गच्छन्ति
यत्र श्रांध्द विवार्जितम्॥

अत: जहां परिवारों में श्राध्द नहीं होता, वहां न तो वीर पुरुष ही जन्मते हैं, न ही निरोगी होते हैं और न ही शतायु होते हैं तथा कल्याण प्राप्ति भी नहीं कर पाते, इसलिए श्राध्द पितरों के प्रति सच्ची श्रध्दांजलि देने का पावन-पुनीत पर्व भी है।

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