आओ सच्ची होली मनायें

आओ सच्ची होली मनायें

भारतीय संस्कृति की परम्परा में त्योहारों का बहुत ही महत्व है। जितने त्योहार भारत में मनाये जाते है उतना शायद ही विश्व के किसी और देश में मनाये जाते है। इसमें कोई दो राय नहीं की त्योहार हमारे जीवन में उमंग और उल्हास के रंग भर देते हैं, और उसमें भी ‘होली’ का जो पर्व हैं वह बाकि सभी त्योहारों से विलक्षण है, क्योंकि यह एक ऐसा त्योहार है जो सभी लोग खूब हास-परिहास के साथ मनाते हैं। पर क्या कभी हमने यह सोचा हैं की होली का यह त्योहार हम होलिका जलाकर और फिर दूसरे दिन एक दूसरे पर रंग उड़ाकर क्यों मनाते हैं? क्यों हम विशेष कर गुलाल का उपयोग करते हैं? क्यों हम लकड़ियों के साथ गोबर को जलाते हैं? क्यों हम अग्नि में गेहूं, जौ इत्यादि डालते हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सिर्फ परंपरा की रीति से यह पर्व को मनाना जैसे अथार्थ होगा।

अतः हमें प्रथम आत्म मंथन कर इन प्रश्नों का उत्तर जानना होगा, उसके पश्चात ही हम सही अर्थ में यह त्योहार का आनंद उठा पाएंगे। परन्तु वर्तमान बदलते समय के चक्र में भैतिक दृष्टिकोण से सोचने के कारण हम पर्वों को केवल लौकिक रूप से मनाते हैं तथा अलौकिक स्तर तक नहीं सोचते है। बावजूद इसके, एक अध्यात्मवादी होने के नाते मैं इतना जरूर समझता हूं कि हम ‘होली पर्व’ से 2 महत्वपूर्ण शिक्षाएं अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। वह शिक्षाएं हमें उन दो विधियों से प्राप्त होती हैं जिन्हें हम इस पर्व के दौरान मनाते हैं। इसमें सर्व प्रथम हैं ‘होलिका जलाना’, जिसमे सूखी लकड़ियां, पत्ते, गोबर इत्यादि जलाया जाता हैं।

पर क्या केवल लकड़ियां और गोबर इत्यादि जलाना ही होलिका दहन हैं? क्या होलिका जलाने से मनुष्य के विकार और विकर्म तथा दुःख और क्लेश भला कैसे नाश हो सकते हैं? नहीं ! वास्तव में होलिका जलाने का यथार्थ अर्थ है पिछले वर्ष की कटु और तीखी स्मृतियों को जलाना, अपने दुःखों को भुलाना और हंसते- खेलते नये वर्ष का आह्वान करना। अतः हमें इस बात की स्मृति रखना आवश्यक हैं की अपने भीतर योगाग्नी प्रज्वलित करने से ही हमारी पुरानी कटु स्मृतियां मिट सकती हैं और हमारे जीवन में उमंग-उल्हास की बहार आ सकती हैं। इसलिए ही होलिका के दिन गोबर और घास-फूस को अग्नि की ज्वाला में जलाना वास्तव में हमें अपने मन की उबड-खाबड अथवा दूषित वृत्तियों को योगाग्नी द्वारा भस्मसात करने की प्रेरणा देता है।

इसी प्रकार से होलिका दहन के दूसरे दिन हर्षोल्लास के साथ हम सभी एक दूसरे पर रंग उड़ाकर अपनी खुशियों का इजहार करते हैं वास्तविक रूप से देखा जाए तो होली कोई स्थूल रंगों का त्योहार नहीं है बल्कि प्रभु के प्रेम में रंग जाने का त्योहार है। चूंकि हम प्रभु -प्रेम के रंग में अपने आप को रंगना भूल गए हैं, इसलिए हमने स्थूल रंगों की होली खेलना शुरू कर दी। परन्तु! स्थूल रूप से खेली जाने वाली रंगों की होली एक दिन की अस्थायी खुशी भले ही हमें दे दे पर उससे हमारे जीवन में स्थायी खुशी की रंगीन बहार कभी नहीं आ सकती। अतः जब तक हमें अपना स्पष्ट आत्मबोध नहीं हो जाता तब तक अपने देह और देह की स्थूल दुनियां में ही हम उलझे रहेंगे और हमारी बुध्दि जाति, भाषा, धर्म इत्यादि के भेद-विभेद में ही फंसी रहेगी।

तो आइए, हम, आप सभी अपने मन के कुभावों तथा कुसंस्कारों का कचरा दग्ध कर, ज्ञान और गुणों के रंगो से एक-दूसरे को रंगकर, प्रभु-प्रेम के रंग और संग में झूमते हुए सच्ची-सच्ची होली मनाएं। इससे हमारे जीवन तथा समस्त संसार में सदा बहार आ जाएगी।