रंग बोलते हैं, जीवन-रस, घोलते है, उत्साह और आनंद का संचार करते हैं, इंद्रधनुषी कल्पनाओं को जन्म देते हैं। अगर रंग नहीं होते तो जीवन नीरस हो जाता। रंग मन और मस्तिष्क में सरसता का संचार करते हैं। ऐसी सरसता जिससे जीवन मूल्यावान हो जाए। हम रंगों के माध्यम से अपनी भावनाओं और कल्पनाओं को अभिव्यक्त करते हैं। रंगों से विचारों की तरंगे चेतन व अवचेतन स्थिति में मनोमस्तिष्क में व्याप्त होती है। धारणाएं बनती और मिटती हैं। निश्चयत्मक शक्ति का अभ्युदय होता है। यह व्यक्ति की ग्राह्य शक्ति पर निर्भर करता है कि वह रंगों से किस तरह की संवेदनाएं ग्रहण करता है तथा रंगों से कैसी प्रेरणाएं लेता है।
होली का इंद्रधनुषी उल्लास
रंगों का अपना मनोविज्ञान है। मनोविज्ञान की दृष्टि से हर रंग की अपनी विशेषताएं हैं। हम रंगों का संयोजन अपने लक्ष्य के लिये कितनी कुशलता से करते हैं? कौन सा संदेश ग्रहण करते हैं। यह हमारी चेतना पर निर्भर है। वैसे रंग अपनी मूल प्रकृति में अपने गुण-धर्म को धारण करते हैं। यहां हमारा विषय रंग का वैज्ञानिक परीक्षण करने का नहीं है। विज्ञान और मनोविज्ञान की अपनी दृष्टि है, अपने निष्कर्ष हैं। हम तो यहां रंगों में जीवन का सौंदर्य देखना चाहते हैं। सामान्य व्यवहार में उसकी गरिमा की चर्चा करना चाहते हैं।
होली में रंगों की चर्चा सामयिक ही है। होली आनंद का त्यौहार है। यदि जीवन से आनंद को निकाल दें तो शेष क्या रह जायेगा? हमारे संपूर्ण प्रयत्न आनंद की दिशा में अग्रसर होते हैं। हर व्यक्ति के लिये आनंद अलग-अलग विषय प्रसंगों से निहित हो सकता है। कोई होली खेलने वालों के आनंद से आनंदित हो सकता है, कोई दूर रहकर रंगों की छटा में जीवन-सौंदर्य की तलाश कर सकता है।
उत्सव वस्तुत: आनंद का ही पर्याय है। यदि उत्सव में आनंद नहीं है तो वह उत्सव कैसा। बिना आनंद और खुशी के किसी उत्सव की हम कल्पना तक नहीं कर सकते, जहां आनंद है, वहीं उत्सव है और वहीं जीवन है अन्यथा उत्सव आडम्बर के अतिरिक्त कुछ नहीं है। केवल परंपरा का निर्वाह मात्र है। इस निर्वाह में शुष्कता है। बंधन है। औपचारिकता की विवशता है।
होली सारी विवशताओं को तोड़ने वाला उत्सव है, हृदय खोलकर रख देने वाला उत्सव है, इसमें आनंद का अद्भुत ज्वार है। उमंग की ऊंचाई है, शिष्टता है, समता है, इंद्रधनुषी उल्लास है। इसके साथ ही इसमें जीवन का दर्शन है, आनंद का इसमें रस छलकता है। आनंद की दृष्टि से कोई भिखारी नहीं रह सकता बशर्ते वह होली खेले ही नहीं, बल्कि होली का अनुभव भी न करें।
होली की अनुभूति मन को कुंठा मुक्त कर देती है। सारे बंधनों को तोड़ती है। एकदम उन्मुक्त कर देती है। तभी वह रासलीला करने वाले मोहन और राधा को अपूर्व सुखानुभूति दे जाता है। रंग से सराबोर, उमंग से सराबोर, सारे बंधनों से मुक्त, सारे सौंदर्य से युक्त और निर्मल मन का प्रवाह प्रकृति की सारी सुंदरता उस पर न्यौछावर होती है। प्रकृति के संपूर्ण ाृंगार से उसके क्रियाकलापों से जीवन के स्वर मुखरित होते हैं, उस पर होली का आनंद दोनों एकाकार हो जाते हैं। ऐसा आनंद और कहां मिलेगा? किसी दुकान पर यह नहीं मिलने वाला है। इसे तो स्वयं पाना होगा। होली के माध्यम से वसंत ऋतु में सजी-संवरी प्रकृति जीवन का संपूर्ण सुख, संपूर्ण दर्शन और संपूर्ण जीवन शक्ति उलीचती है।
होली का वर्तमान विकृत स्वरूप
नगाड़े पर थाप पड़ती है। नगाड़ा खुशियों को विज्ञापित करता है। आओ गाओ जीवन के गीत। फाग से जीवन में रस का संचार होता है, रंग-तरंग भरते हैं, पलास सद्भाव को व्यक्त करता है, होली मस्त करती है, बोझिल जीवन में हलचल लाती है, विश्वास जगाती है। वह कहती है आओ अपनी मानवीय बुराइयों को होलिका की तरह जला डालो। सारी सड़न विसर्जित कर दो, अग्नि ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान, अज्ञानता का नाश करता है। अपनी ज्ञान-अग्नि को प्रज्जवलित रखो। अज्ञानता स्वयं भस्म हो जाएगी, उसके बाद ही होगी रंगों की वर्षा, होली आएगी, इंद्रधनुषी खुशियां जीवन को संवारेंगी। हर पल उत्सव होगा, हर पल होली होगी। आनंद का महासागर लहरायेगा और सारे रत्न इसी आत्मनंद में समाहित हैं।
बहरहाल, वर्तमान परिवेश में होली के स्वरूप को इतना विकृत कर दिया गया है कि होली आनंद का नहीं, दु:ख का पर्याय होती जा रही है। राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सद्भाव और सबके लिये सुख व आनंद का प्रतीक यह महान पर्व अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया है। आजकल होली का मकसद पर्यावरण की समस्या उत्पन्न करना (हरे भरे वृक्षों की होली जलाकर), वैमनस्यता का पोषण करना और बदला लेना, गुंडागर्दी, रंगों की जगह आइल व अन्य हानिकारक द्रवों का प्रयोग, लोगों को शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक क्लेश पहुंचाना आदि ही रह गया है। होली का यह स्वरुप तो नहीं है।
होली तो हर प्रकार के भेदों की होली जलाती है। एकता, भाईचारा और सद्भावनाओं को जन-मन में भरती है। विध्वंसक तत्वों को होली के स्वरूप को बिगाड़ने की छूट मिलती रही तो कालांतर में इतना आदर्श और महान पर्व होली इतिहास की किताबों में ही सिमटकर रह जाएगा। धार्मिक कथा सुनकर ही लोग होली-दर्शन करेंगे। होना तो यह चाहिये कि सामाजिक शक्तियां विध्वंसक और होली को कुरूप करने वालों को हतोत्साहित करें। अन्यथा विकृत मानसिकता के लोग होली की गरिमा का हरण करते ही रहेंगे।
होली हमें भक्त प्रह्लाद के महान व उदार जड़-चेतन एकात्म भाव का संदेश देती है। दुष्कर्म अथवा दुष्प्रवृत्तियों के विनाश की सुनिश्चितता के प्रति आश्वास्त करती है। जो लोग होली को शून्यभाव से महज परंपरा मानते हैं, उन्हें होली का आनंद नहीं मिलेगा और परंपरा निर्वाह मात्र का सुख पाकर ही उन्हें संतुष्ट रहना होगा।
समाज के जागरूकता, नैतिक-शक्ति स्रोतों को पूरी शक्ति से होली की तरह ही मनाने हेतु बाध्य करना चाहिए। गांव-शहरों में ऐसे प्रयत्न अब समय की आवश्यकता हैं। रंग को भंग करने, मादक द्रव्यों से त्यौहार मनाने व वातावरण को तनावयुक्त, अप्रिय करने वालों से सचेत रहने की आवश्यकता है। अत्यंत खेदजनक बात है कि आजकल पुलिस की पहरेदारी में ही हमें त्यौहार मनाना पड़ता है। क्या हमारी नैतक शक्ति, धार्मिक संस्कार, पारिवारिक संस्कार, विवेक और आत्म-संयम इतने अधिक दुर्बल हो गये हैं? फिर भारतीय संस्कृति की माला जपने मात्र से क्या होगा? हमें फिर सिध्द करना होगा कि हमारे संस्कार मरे नहीं हैं।
हम विध्वंसात्मक नहीं, रचनात्मक शक्तियों में विश्वास करते हैं। दुनिया रंगीन है, हर रंग में जीवन का आनंद है और होली का सौंदर्य विश्व-बंधुत्व भाव में है। आइये, हम आप होली को उसके मूल स्वरूप की ओर न लौटा पाएं तो कम से कम वर्तमान स्वरूप को और विकृत होने से तो बचाएं। हर हृदय को खुशियों के रंगों से भर दें।