सात्विक जीवन-यापन एवं स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था हेतु भारतीय विद्वानों ने कुछ जीवन मूल्यों का निर्धारण किया है यथा- सत्य, अहिंसा, धृति, क्षमा, दया आदि। इनके अनुगमन द्वारा मानव जीवन में उर्ध्वगमन एवं अमरता का वरण सुनिश्चित है। देवीय स्वभाव के इन लक्षणों का स्वयं श्रीकृष्ण ने गीता में उल्लेख किया है:
तेज: क्षमा घृति: शौचमद्रोहो नातिमानिता,
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत।'
ये उस व्यक्ति के गुण हैं, जो देवीय स्वभाव लेकर जन्म लेता है। यदि हम इन लक्षणों में से एक ‘क्षमा’ पर ही दृष्टिपात करें तो दृष्टव्य है कि इसे अपनाने से मानव जीवन आध्यात्मि ऊंचाई प्राप्त कर सकता है। ‘क्षमा’ क्या है?… ‘दो आखर’ मात्र है, लेकिन इस छोटे से शब्द में विपुल ऊर्जा समायी हुई है। क्षमा एक तप है, एक साधना है। आततायी द्वारा मानहानि, धनहानि, तनहानि होने पर भी पूर्ण धैर्य व उदारता रखते हुए अमलिन मन एवं विद्वेष रहित भावना से कर्ता को अत्यन्त उदारता एवं अक्रोध से आत्म-परिष्कार का अवसर प्रदान करना ‘क्षमा’ का स्वरूप है।
कहने में जितना आसान है, सम्भवतया अपनाने में उतना ही कठिन है। छोटी-छोटी सी बातों को लेकर बड़े-बड़े झगड़ों का हो जाना, इसका प्रमाण हैं। एक गाली देने वाले को चार थप्पड़ मार देना, सहज प्रक्रिया हो चुकी है। ऐसा करके स्वयं को बड़ा मानने की एक और भूल कर बैठते हैं हम।
क्षमा कर देने वाला महान तो बन ही जाता है और जिसे क्षमा किया जाता है वह पानी-पानी हो जाता है।
बहुत ही बड़ा आत्मबल है क्षमा, जो बिरले को ही मिलता है। युधिष्ठिर ने पाया था यह बल। वीरोचित गुण है यह। क्षमा करना किसी वीरता से कम नहीं माना गया है, इसीलिये धर्मवीर, कर्मवीर, दयावीर, युध्दवीर की तरह क्षमावीर का उल्लेख भी सर्वत्र प्राप्त है। यह तो वीरों का आभूषण है-
'क्षमा वीरस्य भूषणम्।'
क्षमा में विवेक जरूरी
वस्तुत: क्षमा की जगह हमारे यहां दंड देने की प्रक्रिया अधिक सक्रिय है। इसकी कानूनी व्यवस्था है। यह भी माना गया है कि अपराधी को दंड मिलना चाहिये, ताकि वह भविष्य में गलती की पुनरावृत्ति न करे, जबकि कई मामलों में देखने में आता है कि सजा भुगतकर आने के तुरंत बाद ही अपराधी पुन: अकरणीय कृत्यों को आरंभ कर देता है।
क्षमा एक नैतिक गुण है, लेकिन इसमें विपुल शक्ति निहित है। इससे अपराधी को आत्मपरिष्कार के अधिक अवसर मिलते हैं, जिससे सुधार की प्रक्रिया को सम्बल मिलता है। अनेक प्रकरणों में तो जो अपराधी ही नहीं, फिर भी साक्ष्य के अभाव में उसे दंड दे दिया जाता है। उसकी चीख अनसुनी होकर रह जाती है। तब उसमें भविष्य में अपराध की भावना जाग्रत होने की अधिक सम्भावना रहती है। यदि ऐसे प्रकरण में उसे क्षमा कर दिया जाए तो उसकी कुण्ठा का शमन हो जाता है और अन्याय होने की संभावना समाप्त हो जाती है।
क्षमा किये जाने वाले के मन में आत्मग्लानि, लज्जा के भाव क्षमा करने वाले के प्रति कृतार्थ भाव में परिणित हो जाते हैं। कितने ही ऐसे उदाहरण हैं, जहां खूंखार अपराधी, डाकू, खूनी भी क्षमा कर देने से आत्मसमर्पण कर देते हैं और अन्तत: (कुछ अपवादशों को छोड़कर) सहृदय होकर एक आदर्श नागरिक के रूप में जीवन-यापन करते हैं। नि:संदेह क्षमा महान मानवीय लक्षण है। धर्म के दस लक्षणों में इसका उल्लेख मिलता है।
'धृति: क्षमा दमोऽस्तेय शौचमीन्द्रिय निग्रह:
धीर्विधा सत्यमऽक्रो दशमं धर्म लक्षमण्।'
तथापि क्षमा करने से पूर्व समयानुकूल, पात्रतानुकूल विचार-विमर्श भी अपरिहार्य है। कितनी ही बार अपराधी इसका दुरुपयोग करते हुए पुन: अपराध में संलग्न पाया जाता है। उसकी दृष्टि में क्षमा का कोई मूल्य नहीं होता। ऐसी स्थिति में दण्ड विधान सुनिश्चित होना ही चाहिये, क्योंकि सीमा एवं अति का ध्यान विद्वजनों के लिये वांछनीय है।
भगवान श्रीकृष्ण क्षमा के सागर थे, लेकिन उन्होंने भी सीमा को अंगीकार किया था। शिशुपाल की सौ गालियां वे माफ करते रहे, लेकिन एक सौ एकवीं गाली होते ही उन्होंने सुदर्शन चक्र से उसका संहार करने में विलम्ब नहीं किया। ऐसे दुष्टों का दमन समाज के मंगल हेतु अनिवार्य है। यदि ऐसे प्रकरण में हम क्षमा की ही माला जपते रहे तो भारी त्रुटि कर बैठेंगे।
वर्तमान में ‘क्षमा’ का जितना अवमूल्यन हुआ है या हो रहा है, पहले कभी नहीं हुआ था। बात-बात में सारी बोलना मात्र फैशन हो गया है, इसमें क्षमायाचना जैसा भाव कहीं परिलक्षित नहीं होता। अत: जरूरी है कि इस महान शब्द का मर्म आत्मसात करते हुए ही इसे व्यवहार में लाया जाए। सारी बोलने का अर्थ है, त्रुटि के प्रति दु:ख प्रगट करते हुए भविष्य में पुनरावृत्ति नहीं करने का संकल्प धारण कर लेना। शायर पुरुषोत्तम ‘यकीन’ ने खूब व्यंग्य किया है-
'हम करेंगे गुनाह भी अक्सर,
तौबा भी बार-बार कर लेंगे।'
आज नफरत, बैर, क्रोध, अहम, द्वेष, अनैतिकता, कुण्ठा, बदले की भावना आदि दुर्भावनाओं की भीषण ज्वाला में धधकते हुए विश्व को महती आवश्यकता है क्षमाशीलता की शीतल फुहारों की।
क्षमा-भाव के वास्तविक रूप को हमें हमारे अंतस में उतारने की और अनुभूत करने की, ताकि हमारी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की महान भावना पुन: अनुप्राणित हो सके।