ईश्वरीय रंग में रंगना श्रेष्ठ होली

ईश्वरीय रंग में रंगना श्रेष्ठ होली

जैसे आत्मा के बिना शरीर बेकार हो जाता है और उसे मुर्दा समझकर जला दिया जाता है वैसे ही आध्यात्मिक अर्थ को समझे बिना त्योहार मनाना भी बेकार ही है, क्योंकि भारत के सभी त्योहार आध्यात्मिक अर्थ को लिये हुये हैं। अतः होली के भी आध्यात्मिक रहस्य को समझना चाहिए, क्योंकि उस आध्यात्मिक अर्थ का आधार लेने से ही लोक और परलोक अथवा व्यवहार और परमार्थ दोनों सिध्द हो सकते हैं।

होली का त्योहार शिवरात्रि के बाद ही क्यों?

भारत में जो भी त्योहार मनाये जाते हैं उनमें एक ज्ञान-युक्त क्रम अथवा सिलसिला भी है। उस क्रम के रहस्य को भी जानना चाहिए। उस क्रम में होली से पहले शिवरात्रि का उत्सव आता है। वह उत्सव परमपिता परमात्मा शिव की याद में मनाया जाता है जैसे कि- शिव नाम के अर्थ से ही सिध्द है, परमात्मा शिव का अवतरण मनुष्यों के कल्याणार्थ ही होता है। उनके अवतरण से पूर्व मनुष्यों पर पांच विकारों का रंग चढ़ा होता है। सारे संसार में अज्ञान राशि छाई होती है। ऐसे समय में ही सत्, चित्त आनन्द स्वरूप परमात्मा शिव आकर अपने ‘संग का रंग’ अर्थात् ‘ज्ञान-योग का रंग ‘मनुष्यात्माओं को प्रदान करते हैं। उस वृतान्त की याद में आज तक शिव रात्रि के ही बाद होली मनायी जाती है।

इससे स्पष्ट है कि ज्ञान के रंग से आत्मा की होली को रंगना ही वास्तविक होली मनाना है। माया का रंग तो हर एक मनुष्य पर चढ़ा हुआ है, अब ईश्वरीय संग के रंग में आत्मा को रंगना ही होली के आध्यात्मिक अर्थ का आधार लेना है। परमात्मा के संग का अथवा ज्ञान का रंग ही वास्तव में उल्लास देने वाला रंग है, क्योंकि जब परमात्मा ज्ञान रंग लगाते हैं तब आत्मा पवित्र रहने का व्रत लेती है अर्थात् पवित्रता की रक्षा करती है। इसलिए होली के बाद रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है।

आजकल होली के दिन छोटे-बड़े सभी मिलकर एक-दूसरे के साथ होली खोलते हैं, यहां तक कि जबरदस्ती भी रंग लगाते हैं। वास्तव में लगाना तो चाहिए। ज्ञान का रंग परन्तु देह-अभिमानी लोग भौतिकवाद तथा बहिर्मुखता के कारण आध्यात्मिकता को तिलान्जलि देकर और भौतिक रंग एक-दूसरे को बुरी तरह लगाकर इस निर्धन देश के करोड़ों रुपयों के रंग और कपड़े खराब कर देते हैं। ऐसी होली खेलने का क्या लाभ जिसमें खेल ही खेल में अनेक लोगों का दिल दुःखता है और देश का धन भूखों का भूख मिटाने के काम न आकर धूल में मिल जाता है।

ज्ञानी और योगी की दृष्टि में तो यह मनुष्य-सृष्टि ही एक विराट खेल है। यह सृष्टि रूपी खेल ‘दो-रंगी लीला’ है। इस सृष्टि में दो हीरंग हैं- एक ‘माया का रंग’ और दूसरा ‘ईश्वर का रंग’ इस रंगमंच पर हर एक मनुष्य दोनों में से एक न एक रंग में तो रंगता ही है। निस्संदेह, ईश्वरीय रंग में रंगना श्रेष्ठ होली मनाना है, क्योंकि इस रंग में रंगा हुआ मनुष्य ही योगी है। माया के रंग में रंगा हुआ मनुष्य तो भोगी है।

अब हर एक मनुष्य को स्वयं अपने आप से पूछना चाहिए कि मैं कि रंग में रंगा हुआ हूं, माया के रंग में या ईश्वर के रंग में? कुसंग के रंग में या सत्संग के रंग में? ओहो, यदि मैंने ज्ञान-होली न मनायी तो मेरी आत्मा की होली तो बे-रंगी रह जायेंगी। तब मैं आत्मा अपने पिया परमात्मा के घर में जाऊंगी कैसे? मंगल मिलन मनाऊंगी कैसे?

मंगल मिलन या जंगल मिलन?

आत्मा का मंगल मिलन तो परमात्मा से ही हो सकता है, क्योंकि मंगलकारी तो एक परमात्मा ही है जिन्हें ‘शिव’ कहा जाता है। अतः मंगल-मिलन के लिए तो ज्ञान-रंग चाहिए। परन्तु मंगल मिलने के वास्तविक अर्थ को न जानने के कारण आजकल को लोग होली के दिन एक-दूसरे पर गुलाल और अबीर डालकर गले मिलते हैं। क्या इस हम मंगलमिलन कह सकते हैं? मंगल मिलन को तभी होगा जब लोगों के हृदय शुध्द हो और वे एक-दूसरे के प्रति द्वेष, ईर्ष्या इत्यादि समाप्त कर एक-दूसरे को भाई-भाई समझकर ऐसे मिलें कि भोदभाव और अमंगल हो ही नहीं। परन्तु आज आजकल तो भारतवासी खूब ही होली मना रहे हैं। परन्तु आज व्यवहार में तो लोग जंगल-मिलन ही मना रहे हैं वैसे जंगल में हिंस्र पशु एक-दूसरे को देखते ही हड़प करने की सोचते हैं वैसे ही आज मनुष्यों में लूट-मार और पशु-वृत्ति स्पष्ट दिखाई रही है। मर्यादा और अनुशासन खत्म हो चुका है और अब तो जंगल का विधान ही लागू है। यह सभी स्थूल रंग से या गुलाल और अबीर से मंगल-मिलन मनाने से थोड़े ही ठीक होगा।

आप जानते हैं कि चीनी और भारतवासी कल तक तो एक- दूसरे को भाई-भाई कहते थे परन्तु आज वे खून से एक-दूसरे की चोली रंगने के लिए तैयार हैं। आज इस देश में भाषा भेद, प्रांत भेद, पार्टी भेद, मत-भेद इत्यादि कितने ही भेद हैं और उनसे कितने परस्पर संबंध विच्छेद हुए हैं। जिस प्रकार ये भेद बढ़ते जा रहे हैं। उससे तो ऐसा लगता है कि एक जिन खून की होली खेली जायेगी जिसका वर्णन महाभारत में कौरव युध्द के रूप आता है। अब आप ही सोचिए कि स्थूल रंग से मंगल मिलन अथवा होली मनाने का कोई अर्थ है? इसका कोई लाभ है?

होली कैसे मनायें?

इसलिए हम कहते हैं कि अब भी समय है कि मनुष्य ज्ञान रंग द्वारा अपने हृदय को प्रभु के रंग में रंग ले। ऐसी होली ईश्वरीय मर्यादा की ही है। स्थूल रंग पाली होली से तो लड़ाई-झगड़ा ही अधिक होत है। छोटे बच्चे बड़ों की पगड़ी उतारते हैं और बड़े भी एक-दूसर पर कीचड़ उछालते हैं और एक-दूसरे को गाली-ग्लौज भी देते हैं। वैसी विडम्बना है कि आज ऐसे पालन गर्व को लोगों ने हुल्लड़बाजी का पर्व बना दिया है।

थोड़ा समय पूर्व तक भारत के कई नगरों में यह रिवाज चला आता था कि होली के दिनों में नगरों में देवी-देवताओं के स्वांग निकलते थे। स्वांगों के चेहरों पर पाउडर और अबरक लगाकर देवताओं के चेहरों को बड़े सुन्दर और तेजोमय प्रदर्शित करने का यत्न किया जाता था। देवताओं के स्वांगों के मस्तकों पर भृकुटि के स्थान पर छोटे-छोटे बल्ब लगे होते थे जो कि देवताओं की आत्माओं की जागृति के सूचक होते थे। ये स्वांग नगर के प्रमुख रास्तों से गुजरते थे। इन जुलूसों में देवता लोग कहीं-कहीं रास करते हुए भी दिखायें जाते थे। जुलूस तथा सवारी में सबसे आगे बैल पर शिव की सवारी होती थी।

इस प्रकार होली मनाकर लोग देवताओं की निरोगी काया, तेजोमय आकृति, उल्लासपूर्ण जीवन इत्यादि की झांकियां अपने सामने लाते थे ताकि अपने जीवनके लक्ष्य की झलक आंखों के सामने आ जाये और एक बार फिर अपने पूर्वजों एवं पुज्यों की याद भी जाय। ये सवारी अथवा जुलूस इस रहस्यों के भी स्मारक थे कि जब परमात्मा शिव इस सृष्टि में आते हैं तो उनके पीछे (बाद) देवी-देवताओं का जमाना आता है। भले ही इस रीति से होली मनाना कुछ अच्छा था परन्तु आज क्यों न हम ऐसी होली मनायें कि स्वांगों की बजाय सतयुग के साक्षात् देवी-देवताओं का जमाना फिर से लौट आये और सभी की आत्मा बल्ब के समान जग जाय? वास्तव में ऐसी होली ही तो पारमार्थिक होली है जिसे एक बार खेलने से मनुष्य का जन्म-जन्मान्तर मंगलमय हो जाता है।

परन्तु आज जो लोग उपर्युक्त रीति से वास्तविक होली मनाते हैं उनके बारे में लोग कहते हैं- ‘अजी ये कोई होली थोड़े ही मना रहे हैं? कहां है रंग और कहां है पिचकारी? आपकी चोली पर तो रंग की एक बूंद भी दिखाई नहीं दे रही। जो आप मना रहे हैं इसे घोड़े ही होली कहा जाता है? उनकी यह बात सुनकर कबीर का यह दौहा याद आता है :-

रंगी को नारंगी कहें, बना दूध का खोया,
चलती को गाड़ी कहें, देख कबीरा रोया।

संसार की तो उल्टी चाल है। यदि आप वास्तविक होली मनायें तो कहते हैं इस बार होली फीकी रही और यदि नगर में हुल्लड़बाजी हो तब समझते हैं कि इस बार होली अच्छी लगी। परन्तु वे नहीं जानते कि द्वापरयुग और कलियुग की गुलाल-अबीर की होली तो संगम की वास्तविक होली की यादगार है जो कि ज्ञान-रंग से खेली गयी।