जन्माष्टमी : श्रीकृष्ण चेतना का अर्थ

जन्माष्टमी : श्रीकृष्ण चेतना का अर्थ

उपासना का स्वरूप और भाव की एक ऐसी संयुक्त है, जिसमें सर्वशक्तिमान का सर्वकालिक स्वरूप अभिन्न हो जाता है। भक्त और आराध्य के भेद की लय अवस्था। स्वयं श्रीकृष्ण कहते हैं – ‘जो तुम हो वही मैं हूं यथा दुग्ध में श्वेत, अग्नि में दाहक शक्ति, पृथ्वी में गन्ध वैसे ही ‘मैं’ निरन्तर तुम में हूं।

नवधा भक्ति का स्वरूप परम सत्ता से साक्षात् ही नहीं, उसमें लय होने से है। माधुर्य भाव की भक्ति श्रीकृष्ण को प्रिय है। ‘तत् त्वमसि’ ‘सोअहं’ द्वैत और अद्वैत के अन्तर को पाटती श्रीकृष्ण चेतना रासलीला में रोम-रोम श्रीकृष्ण मय हो न कि मंच पर ही भक्ति प्रगटे। जानबूझकर की गई प्रस्तुति में वह बल नहीं होता जिसकी अपेक्षा रहती है। श्रीकृष्ण माधुर्य भक्ति से प्रसन्न होकर शीघ्र फल देते हैं परन्तु श्रीकृष्ण चेतना आदान-प्रदान की वस्तु नहीं है। विश्व जन मानस को जितना श्रीकृष्ण की गीता ने प्रभावित किया है, उससे भी कहीं अधिक श्रीकृष्ण लीलाओं का प्रभाव उभरा है।

श्रीकृष्ण में अनुराग ही श्री कृष्ण चेतना का अंश है। गीता (18 अ. 65) में ‘मन्मनाभव’ ‘तू मेरे में मन वाला हो’। महाप्रभु चैतन्य ने जिस तन्मयता से आराधना की है- उसको मैंने अनुभव किया है। कैसा संकीर्तन है जिसमें चैतन्य चेतना लय हो जाती है। श्रीकृष्ण क्या नहीं है, गोपी, ग्वाल, गायें, गोवर्धन गति और प्रकृति का संगीत बांसुरी, नृत्यरत, मयूर पंख किसे किससे विलग करके देखा जाए।

श्रीकृष्ण चेतना का अर्थ है हमारे मन में सर्व भावातीत स्वरूप को अन्तर्मुख करने वाली वह चेतना जाग्रत हो जाए, जिसका साक्षात् तर्कातीत हो। जरूर वाणी और बुध्दि से प्रगट ही न हो सके। ‘गूंगे का गुड़’ स्वाद है। कैसे बताए स्वाद। आत्म स्मृति यह चेतना है, जिसमें मांगने जैसा कुछ भी शेष नहीं रह जाता, चाह ही न रहे। ज्ञान, करुणा, प्रेम, भक्ति, सौन्दर्य सब गड़बड़ हो जाए, चित्त की निर्मल अवस्था निग्रहानुग्रह का भेद ही समाप्त कर दे। इस परिदृश्य में मेरी भी एक इच्छा रहती है, सूर्य से जब भी मांगता हूं, बस सूर्य को ही मांगता हूं। आराध्य से आराध्य को मांगना बड़ी दुर्लभ स्थिति है।

कितने ऐसे हैं, जो कृष्णमय हो जाते हैं। पञ्च ज्ञानेन्द्रियों शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्ध कहां प्रगट हैं और कहां अप्रगट हैं जाना नहीं जा सकता है। श्रीकृष्ण चेतना का जीवन्त स्वरूप देखना है- तो सूर और मीरा में देखें चैतन्य महाप्रभु में देखें। नेत्रहीन सूर ने जितना गाया है। श्रीकृष्ण के रोम रोम को उसने अपने इकतारे में सजा दिया। सूर भूल जाते हैं नमस्कार करना और मीरा कह उठती हैं- ‘मैं तो लियो है गोविन्दो मोल’ न आत्मनिवेदन न आत्मसमर्पण, सब कुछ सहज प्रकृति में। मन का संयमन ही विराट में लयावस्था है

श्रीकृष्ण चेतना व्यक्ति को पंच विकारों से ऊपर उठाती है। ज्ञाता ज्ञान और ज्ञेय जब अभिन्न हाे जाए- ‘मेरी मनअनत कहां सुख पाए’। यह अनत की तलाश जहां रुक जाए वहीं से चेतना आरंभ होती है। श्रीकृष्ण चेतना से अभिप्राय है- आदेशित और निर्देशित दोनों ही स्थितियां समाप्त हो जाएं। भक्त प्रवचन करते समय क्यों नाच उठते हैं? दर्शन और प्रदर्शन का अन्तर स्पष्ट है। घर में पूजा करता भक्त कहां नाचता है और कथा में विशेषकर श्रीकृष्ण स्तुति या लीलाओं के पदों में जिस लय और ताल से भक्त नाचते हैं, वह अपने को दर्शाना और जनमानस का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना है।

स्वयं को महिमा मण्डित करना ही द्वैत है। श्रीकृष्ण की चर्चा कुछ लोग ऐसी दृष्टि से करेंगे मानो उनके घर (कृष्ण मंदिर) का खर्च वे ही चला रहे हैं, नहीं तो उनके पास क्या था। जब उन्होंने कार्य सम्हाला आरती भी ढंग से नहीं होती थी। बाहर बरामदे में लगी दानदाताओं की सूची और मंदिर के मुख्य द्वार पर लिखा स्वर्गीय श्री….. का नाम स्वचेतना बोध के अहं को ही उजागर करता है। कई मंदिर तो व्यक्तियों के नामों से जाने जाते हैं।

सर्वातीत श्रीकृष्ण को सर्व स्वरूपमय देखना ही श्रीकृष्ण चेतना है। नित्य सर्वगत एवं नित्य अनुस्पृत होने से व्यक्ति के तन, मन और मस्तिष्क में एकाकार हो जाता है। अभिन्नत्व ही श्रीकृष्ण चेतना का आधार है। रूप भाव को जागृत करता है और विचार रस की सृष्टि दोनों मिलने पर रासलीला की स्थिति बन जाती है। सच्चिदानन्द की स्मृति में न ‘रमण’ और न ‘रमणी’ है मात्र माधुर्य ही प्रगट है। राग और अनुराग में इतना ही अन्तर है कि राग में स्व का बान बना रहता है और अनुराग में माधुर्य सीमातीत हो जाता है।

श्रीकृष्ण चेतना मय व्यक्ति सूर, मीरा, चैतन्य की चर्चा संभव नहीं है, अनिवर्चनीय है सब यह एक ऐसा अभिधान है, जिसमें कायिक, वाचिक, मनसा उपस्थिति शून्य हो जाती है। वर्तमान का सजग कृष्ण भक्त प्रदर्शनरत हैं। श्रीकृष्ण की झांकी, उसके स्वरूप में कुछ देर के लिए स्वयं को दर्शाना, कृष्ण चरित्रों के प्रदर्शन को स्वीकार करने लगते हैं, जो श्रीकृष्ण चेतना नहीं हो सकती। सरलता, विनम्रता और समर्पण चेतना को सर्वातीत बना देते हैं।

भोग और मोक्ष दोनों ही दृष्टि से मुक्त होकर व्यक्ति अभीष्ट या वांछित की कामना भी त्याग दे। चेतन चरम और परम में लय का ही नाम है। कर्म एवं ज्ञान की स्वतंत्र स्थिति माधुर्य उपासना में नहीं रहती। स्थूल चेतना में गन्ध धूप दीप, पुष्प, नैवेद्य, पंचोपचार उपासना कहलाती है परन्तु श्रीकृष्ण चेतना में तो कुछ भी अलग नहीं होता।

मेरा निवेदन श्रीकृष्ण भक्तों से ही नहीं सभी भक्त, सन्तों से एक ही है कि समय जो काल भी काल है। जन्मवर्ध्दन और मरण का शाश्वत क्रम अटूट है। आभ्यान्तर दृष्टि से पल, पल हमारा सोच कार्य और दृष्टि परिवर्तनशील है। पंचतत्व समय से ग्रसित है। श्रीकृष्ण चेतना में आना है तो प्राय: सूर्योदय से पूर्व उठिए। उदित होते हुए सूर्य के समक्ष खड़े होकर सूर्य आलोक में श्रीकृष्ण से आत्म साक्षात्कार करें। समय विशेष या अवस्था साक्षात्कार करें। समय विशेष या अवस्था विशेष में स्मरण रस्म मात्र है, इसे त्यागें।

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