नारी का अवमूल्यन एक कलंक

नारी का अवमूल्यन एक कलंक

नारी का अवमूल्यन कर, उसे उसकी गौरव गरिमा से गिराकर हमन एक अपराध किया और अंधकारपूर्ण परिस्थितियों में सैकड़ों वर्षों तक रहने का दंड दिया। कहा जा सकता है कि वह पहला अपराध था जिसका दण्ड देते समय इतिहास ने उदारतापूर्वक विचार किया।

दक्ष प्रजापति के यज्ञ में गयी हुई सती जब अपने पति शंकर का अपमान सहन न कर सकीं, तो वे यज्ञ में कूद पड़ीं। यह दर्द भरा समाचार जब शिव को मिला तो उनका अंतः करण हाहाकार कर उठा। वेदना से उनका हृदय फूट कर बाहर निकलने लगा। सदा समाधि में रहने वाले योगेश्वर शिव का, धैर्य और विवेक धर्म पत्नी के वियोग की उस प्रचण्ड पीड़ा के सामने ठहर न सका। शंकर हतप्रभ हो गये। उनका आंतरिक हाहाकार ऐसा उमड़ा कि मानो प्रलय ही फूट रही हो। उन्होंने मरी हुई सती की जली लाश को कंधे पर लादा और पागल उन्मतों की तरह अपनी वेदना की लहरों के साथ-साथ उछलने लगे। सती की लाश को कंधे पर रखे शंकर का रोम-रोम जो हाहाकार कर रहा था, जैसी प्रचण्ड पीड़ा से आक्रोशित हो रहा था, उसे देखते ही देवता कांपने लगे। उन्हें लगा शंकर के अंतराल का चीत्कार अपने कलेवर को फाड़कर अब तब में फट पड़ने वाली ही है। दसों दिशाओं में हाहाकार मच गया। विष्णु ने उस विपत्ति की घड़ी को टालने के लिए शोक के प्रचण्ड वेग का शमन करने के लिये अपने चक्र से उस लाश के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वे टुकड़े जहां-तहां गिरे वहां शक्तिपीठ बने।

आंतरिक संस्कारों का महत्व

नारी के सम्मान की जो क्षति ज्ञान विज्ञान के अधिपति शंकर के लिए असहय थी, वह कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है? इसका उपयोग हम वासना के कीड़े, उसके द्वारा उपलब्ध होने वाले लाभों के आधार पर सोचें। यदि हम वासना की दृष्टि से मूल्यांकन करते हैं तो यह हमारी हीन दृष्टि ही है। इससे नारी की महत्ता कम नहीं होती। देवता और भगवान करने वालों ने अपने नाम का दौरव तभी सार्थक माना, जब उनकी पत्नियों के नाम उनके नाम से पहले जुड़े।

पौधा कोई भी क्यों न हो उसे उपयुक्त भूमि की एवं पानी की आवश्यकता होती है, उसके बिना उसका विकास संभव नहीं है। इसी प्रकार व्यक्ति के मानस संस्थान का उचित विकास होने के लिए माता तथा नारी का अभीष्ट सहयोग अपेत्रित है। इन पंक्तियों के अभीष्ट सहयोग से मतलब माता के लाड़-चाव, पालन-पोषण से और पत्नी से वासना तृप्ति करने से नहीं है। यह तो आमतौर से सर्वत्र होता है रहता है। माता अपने आंतरिक संस्कारों को बालक के अन्दर पर्याप्त मात्रा में उसके मन, मस्तिष्क, हृदय या नाड़ी संस्थान में भर देती हैं। बच्चे की प्रवृत्ति का आधे से अधिक भाग उसके जन्म से पूर्व बन चुका होता है। शेष आधा ही सत्संग, स्वाध्याय, वातावरण, अनुकरण आदि के आधार पर बनता है।

यदि माता ने बालक का निर्माण केवल शरीर तक ही सीमित नहीं रखा है, उसे अपने उच्च संस्कार भी प्रदान किये हैं तो यह माना जायेगा कि निर्माण में उसने अभीष्ट सहायता दी है। इसी प्रकार पत्नी ने वासना और व्यवस्था तक ही सीमित न रहकर यदि पति की अंतरात्मा को छुआ है, उसकी प्रसुप्त मनोभूमि को सुविकसित करने में प्रसन्नता, उत्साह, आशा, स्फूर्ति, धैर्य, साहस आदि गुणों को प्रस्फुटित करने में योगदान दिया है तो इसे भी अभीष्ट सहयोग कहा जायेगा। जिस व्यक्ति को सहृदय और सुसंस्कृत माता एवं पत्नी प्राप्त हुई है, उसे सब प्रकार से सौभाग्यशाली ही कहा जा सकता है और इन दोनाे के द्वारा उसका अंतःस्थल इतना विकसित हो गया होता है कि वह जीवन की किसी भी दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकता है और बड़ी से बड़ी कठिनाई के साथ हंसते-हंसते टक्कर ले सकता है।

स्वभाव, गुण व आचार

उपार्जन, उन्नति और प्रसन्नता के अनेक साधन जुटाने के लिए हम दिन रात जी जान से प्रयत्न करते हैं। फलस्वरूप बहुत कुछ उपकरण जुटा भी लेते हैं, परन्तु उनका प्रभाव केवल बाहरी जीवन तथा इंद्रियों क प्रसन्नता तक ही सीमित रहता है। अतः स्थल को छूने और विकसित करने वाली वस्तु उनमें से कोई नहीं होती। मनुष्य की महानता उसकी साधन सामग्री पर नहीं वरन् उसके आंतरिक गुणों पर निर्भर करती है। आंतरिक दुर्बलता और हीनता की भावना से ग्रसित व्यक्ति कोई कहने लायक उन्नति नहीं कर सकते। भाग्य से अनायास ही कोई लाभदायक अवसर प्राप्त हो जाये तो वह स्थिति देर तक कायम नहीं रह सकती। व्यक्तित्व के दोषों के कारण अंततः दुःख दुर्भाग्य ही सामने आ खड़ा होगा। इसलिए बुध्दिमान लोग अपने में, अपने स्त्री बच्चों और परिजनों में अच्छे स्वभाव, गुण और आचार की अभिवृध्दि का प्रयत्न करते हैं, क्योंकि स्थायी उन्नति केवल सुविकसित मनोभूमि पर ही अवलंबित है। दुर्बुध्दि मनुष्य किसी प्रकार कुछ उपार्जन भी कर ले तो उसके अहंकार एवं दुगुर्णों की वृध्दि में ही सहायता मिलती है और पतन की घड़ी तेजी से समीप आने के कारण दुगुर्ण बनने लगते हैं।

सुसंस्कारों से संग्रह होने में और भी अनेक कारण हैं। घर का सबसे बड़ा कारण माता द्वारा गर्भ काल में ही बालक को अपनी मनःस्थिति का दान और बड़े होने पर पत्नी उसके ब्रह्म का उद्बोधन, शोधन और अभिवर्धन ही है। इन दोनों के द्वारा जितनी वास्तविकता के साथ व्यक्ति के अंतः निर्माण के कार्य हो सकते हैं उतना अनेक विश्वविद्यालय मिलकर भी नहीं कर सकते। अपार सम्पत्ति का स्रामी होकर भी, विपुल कीर्ति और सत्ता का अधिकारी होकर भी मनुष्य इतनी शांति और प्रसन्नता प्राप्त नहीं कर सकता, जितनी कि नारी अंतरात्मा को निचोड़ कर नर को पिलाने की प्रक्रिया में प्रदान कर देती है। माता केवल दूध ही नहीं पिलाती, स्नेह भरा वात्सल्य भी पिलाती है, साथ ही अगणित सुसंस्कार भी। इसी प्रकार पत्नी केवल वासना की तृप्ति ही नहीं करती, वरन् अंतर की अनेक उत्तेजनाओं, अशांतियों और व्यवस्थाओं का भी शमन कर देती हैं। वह माता की तरह भले ही दूध न पिलाती हो पर अदृश्य रूप से जो कुछ पिलाती है वह अंतःतृप्ति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है।

नारी का अवमूल्यन

हमारे समाज की नारी आज जिस हीन दशा में पड़ी है, उसमें तो पाक विज्ञान, शिशु पालन गृह व्यवस्था, परस्पर शिष्टाचार संबंध, आरोग्य ज्ञान, हिसाब किताब, सामान्य ज्ञान जैसी गृहस्थोपयोगी मामूली बातों की भी आशा नहीं की जा सकती। उसके यह साधारण कार्य भी भौंड़े, त्रुटिपूर्ण और अस्त-व्यस्त पड़े रहते हैं, फिर उन संसुस्कारों की आशा कैसे की जाये जो वे अपने तक ही सीमित न रखकर अपने पति और पुत्रों को प्रदान कर सकती है।

नारी को अविकिसित और पददलित रखकर पुरुष ने पिछली शताब्दियों में पाशविक अहंकार की ही पूर्ति की है। मैं समर्थ हूं, इस पुरुषार्थ पर ही नारी को एक कोने में बिठा दिया, पर्दे में रखा, घरों की चहारदीवारी में कैद किया और घर में या घर से बाहर निकल कर कुछ भी न करने की व्यवस्था बना दी। उसका अहंकार फूला न समाया। मैं कितना समर्थ हूं कि एक नारी की स्वाभाविक क्षमता की पूर्ति भी अपने ही द्वारा कर सकता है। इसे उसने अपना बड़प्पन माना और गर्व भी अनुभव किया। इस व्यर्थ अहंकार में पुरुष का तो कुछ लाभ हुआ नहीं, नारी की सारी क्षमताएं कुण्ठित हो गयीं, वह सभी दृष्टियों से लुंजपुंज हो गया। ऐसी दीन स्थिति में पड़ी हुई गृहिणी जिसने अपने मानसिक संस्थान को शिक्षा और अनुभव से रहित परिस्थितियों में पड़े रहकर सब प्रकार दुर्बल बना लिया है- पुरुष के लिए, अपने परिवार के लिए, स्वयं अपने लिए उपयोगी भी क्या हो सकती है?

पहली बार नारी का अवमूल्यन कर, उसे उसकी गौरव गरिमा से गिराकर हमन एक अपराध किया और अंधकारपूर्ण परिस्थितियों में सैकड़ों वर्षों तक रहने का दंड दिया। कहा जा सकता है कि वह पहला अपराध था जिसका दण्ड देते समय इतिहास ने उदारतापूर्वक विचार किया। अब भी यदि हम अपने समाज को इस अवांछनीय कृत्य से विमुख न कर सके तो काल पुरुष हमें कौन सा और कितना कड़ा दण्ड देगा- कुछ कहना संभव नहीं है।

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