इस सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न धर्मनिरपेक्ष देश में मुगलकाल से ही राम के प्रति मुसलमानों के मन में जो भावना जन्मी उसे जानकर कहीं ऐसा बोध नहीं होता कि वे हिन्दू आदर्शों को महत्व नहीं दे पाये हैं। भारतीय साहित्य कला में उनका जो योगदान रहा है, उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। राजनैतिक दोगलेपन की नीतियों ने समय-समय पर अपने स्वार्थों के हवन में इसे आहुति अवश्य दी है। कवि मुहम्मद फैयाजुद्दीन अहमद के इस उद्गार को कैसे भुलाया जा सकता है-
ये लुत्फे खास है, यह फैजेआम तुलसी का।
के खासो आम का प्यारा है।
राम तुलसी का।
यह राम नाम से है।
उनके प्यार की महिमा।
के सर पे रखती है दुनिया।
कलाम तुलसी का।
वे कहते हैं राम खासो आम का प्यारा है, वास्तव में यही कारण है कि राम केवल हिन्दुओं के ही प्यारे नहीं, बल्कि वे हर मानव मन के प्यारे रहे हैं। राम का चरित्र ही ऐसा है कि सबको मोह लेता है। इसमें कहीं भी कोई साम्प्रदायिकता आड़े नहीं आती। इसी कारण राम की लोकप्रियता देश काल की परिधि से ऊपर उठकर सार्वभौम हो चुकी है। वह देश से देशांतर तक चली भी गई है। इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम देश में ही नहीं, देश से सुदूर पड़ोसी दक्षिण पूर्व के देश रूस जैसे साम्यवादी देश में भी राम ने लोगों को काफी प्रभावित किया है। यह कितना आश्चर्यजनक लगता है कि रूस में रामायण का मंचन एक दशक से ऊपर लगातार चल रहा है। यह बात राम और रामायण की ही विशिष्ट लोकप्रियता है।
ईसाई पादरी कामिल बुल्के जहां राम कथा पर कलम उठाते हैं, वहीं सैकड़ों मुसलमान कवियों, साहित्यकारों ने भी राम के चरित्र से प्रभावित होकर कलम चलाई है। उन्होंने केवल काव्य ही नहीं रचे वरन् स्वयं राममय हो गये। उन्हें वे अपना इष्ट मान चुके है। इष्ट मानते हुए उन्हें जरा भी संकोच नहीं होता, क्योंकि वे राम में ही रहीम को देखते हैं और रहीम में राम को। राम उनके लिए एक लाख चौबीस हजार नबियों में से एक नबी हैं। यह उनकी उदार दृष्टि थी। इसका मतलब यह नहीं कि इस्लाम के प्रति उनकी आस्था टूटी या नमाज, रोजी को उन्होंने छोड़ दिया। एक उदार मुस्लिम कवियित्री खानून सिद्दीकी कहती हैं-
रोम-रोम में रमा हआ, जो राम है।
निर्गुण ही है सगुण है, राम है।
ह्रास धर्म का देख, कि जो
प्रगटित हुआ
उस विभूति को, श्रध्दा सहित
प्रणाम है।
राम को श्रध्दा सहित प्रणाम करने वालों की लंबी सूची है और यह सिलसिला काफी पुराना है। इस सिलसिले की पहली कड़ी रामायण फैजी है यानी रामचरित मानस का पहला फारसी अनुवाद, जो सन् 1534 में हुआ। इससे ज्ञात होता है कि तुलसी के मानस के कवि के जीवनकाल में ही काफी लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी। इन संदर्भों ने मुसलमानों को काफी प्रभावित किया, तभी तो फारसी में पहला अनुवाद हुआ। इसके बाद 1589 में बदायनी का रामायण फारसी सामने आयी और 34 वर्ष बाद 1623 में सादुल्लाम मसीह की दास्ताने रामो सीता फारसी भाषी जनता में इतनी लोकप्रिय हुई कि इसकी कई प्रतिलिपियां हस्तलिखित रूप से तैयार की गई, जिसमें कुछ ब्रिटिश म्यूजियम, इंडिया आफिस लाइब्रेरी, बांकीपुर, पुस्तकालय, एसीटिक सोसायटी बंगाल और अलीगढ़ के ग्रंथालयों में आज भी सुरक्षित है। इसे नवल किशोर प्रेस लखनऊ ने 1899 में प्रकाशित किया।
रामचरित मानस का पहला उर्दू अनुवाद 1860 में प्रकाशित हुआ। यह अनुवाद इतना लोकप्रिय हुआ कि 8 वर्ष में सोलह संस्करण प्रकाशित हुए। एक दूसरा अनुवाद रामायण -ए-फरहत नाज हर्फ का हर्फ भी इतना लोकप्रिय हुआ कि 13 वर्ष में 7 संस्करण प्रकाशित हुए। आज भी अनेक मुसलमान कवि, साहित्यकार रामचरित मानस को आधार मानकर काव्य रचना कर रहे हैं।
किस सुदूर आलोक कानन में, बंदनी तुम सीता,
और कब तक जलेगी,
मेरे वक्ष में विरह की चिता,
सीता ओ सीता
सीता ओ सीता
यह रचना बंगलादेश के राष्ट्रकवि काजी नजूरूल इस्लाम की बहु प्रशंसित रचना मानी गई है। उत्तर प्रदेश के रायबरेली में सन् 1898 में जन्मे अब्दुल रशीद खां की जनता में इतनी लोकप्रियता है कि उन्हें आधुनिक रसखान कहा जाता है। भक्त कवियों की एक यह भी प्रथा रही है कि अपने इष्ट से शिकायत के साथ-साथ व्यंग्य भी किए हैं। सिर्फ उनके खुशामद पसंद हो जाने की बात पर अब्दुल रशीद कहते हैं-
बड़े खुशामद प्रिय भये, तुमहु
है अवधेश
गिरयो विभीषण चरण पर
ताहि कियो लंकेश।
मुसलमान कवियों ने रामकथा पर प्रचुर मात्रा में अपना साहित्यिक योगदान देकर मार्मिकता को भी स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया है। बद्रीनारायण तिवारी द्वारा संपादित रामकथा और मुस्लिम साहित्यकार नामक ग्रंथ में ऐसे अनेक मुस्लिम साहित्यकारों नामक ग्रंथ में ऐसे अनेक मुस्लिम साहित्यकारों की रचनाएं हैं, जिन्होंने रामकथा पर काव्य रचना की है। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा के अमर लेखक डा. इकबाल, विश्व में भारत की महानता का आधार राम के व्यक्तित्व को मानते हुए कहते हैं-
हे राम के वजूद पे
हिंदोस्तां को नाज,
अहले नजर समझते हैं
उनको इमामे हिंद।
वे हिन्दू सभ्यता और संस्कृति के रूप में राम के आदर्श रूप को सारे संसार का आदर्श रूप को सारे संसार का आदर्श स्वरूप ही मानते हैं।
न करो तहजीबे हुनूद अपनी,
नुमायां है अगर,
तो वे सीता से हैं
लक्ष्मण से हैं और राम से हैं।
जहां एक ओर जफर अली ने राम की महानता को स्वीकार किया है, वहीं इस्लाम से उसके संबंध की कल्पना करते हुए वे कहते हैं-
मैं तेरे शोज-ए-तस्लीम पे
सर धुनता हूं कि
यही एक दूर की निसबल
तुझे इस्लाम से है।
जफर साहब का एक और अंदाज है। वे राम को पूर्ण सहमत भाव से कहते हैं-
आओ-आओ अयोध्या के
राजकुमार
करूं तुम पर न्योछावर
में फूलों का हार।
मशहूर शायर सागर निजामी साहब
का दिल छू लेने वाला कवित्व कि
हिंदियों के दिल में बाकी है,
मुहम्बत राम की
मिट नहीं सकती कयामत तक,
हुकूमत राम की
जिंदगी की रुह का,
रुहनियत की शाम का
मुनज्जम रूप में,
इनसान के इरफान का।
डा. जलाल अहमद खां तनवीर ने
भी राम के प्रति कहा है-
कर रहे हैं हर इधर गुणगान
सीता राम के
चल रही है हर और चर्चा
राम की अविराम की
इसके अलावा मुस्लिम कवियों की एक लंबी सूची में नजीर बनारसी, शौकत अली शौकत, सलीम खां, अब्बास अली खां, वसी कमाल अहमद, बेकल उत्साही, मिर्जा हसन नसीर, हबीब अहमद ‘राही’, आ, शैलेश जैदी, जुमई खां आजाद, वसी सीतापुरी, डा. रफीक ‘रससिंधु’ अखिल भारतीय रामकथा गायक महूज हसन रिजवी, जिन्होंने अपना उपनाम पुंडरीक रख डाला है। दीन मुहम्मदीन नाजिश प्रतीपगढ़ी, रजिया बेगम, तकी रामपुरी, फिदा बांदवी, डा. शैलेश जैदी का चर्चित खंड काव्य ‘किसे वनवास दोगे’ काफी मशहूर हुआ है। इसके अलावा इकबाल कादरी आदि अनेक मुसलमान कवि और साहित्यकारों ने राम के आदर्श चरित्र पर अभिभूत होकर रचना की है। कई साहित्यकारों ने रामचरित मानस के विविध पक्षों पर समीक्षात्मक आलेख प्रस्तुत किए हैं, शोध कार्य भी किए हैं।
इन सभी तथ्यों पर नजर रखते हुए हम जब अपने अंतरमन में एक निष्पक्ष विचार को जन्म देने लगते हैं, तब कहीं ऐसा नहीं लगता। विश्वास नहीं हो पाता कि राम और रामायण के प्रति ऐसी सभ्यता जो आज देखने को मिल रही है, पहले ठीक इसके विपरीत ही रहा होगा। इसे आज आपने, हम सबने, मिलकर अपने स्वार्थों की राजनीति पर नाहक बलि का बकरा बनाया है। आज राजनीति की बुनावट में कहीं न कहीं कोई कसर है, जिसे दूर करने के लिए हमारी चेतना को फिर एक बार सजग करना होगा, तभी इस देश के अस्तित्व रक्षा की सफलता मिल सकती है।